क्यों माना जाता हैं संविधान सभा में आदिवासियों के सच्चे पैरोकार ‘डॉ० जयपाल सिंह मुंडा’ को आजाद भारत में आदिवासियों का मसीहा
1928 ओलंपिक में हॉकी में पहला स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान और संविधान सभा में आदिवासियों के सबसे बड़े पैरोकार आजादी के 75 बरस बाद भी रहे गुमनाम।
बीते 03 जनवरी को, आदिवासियों के भाग्य को संविधान मे लिखने वाले जयपाल सिंह की जयंती थी। देश के आदिवासियों को ही यह ज्ञात नहीं है कि जयपाल सिंह मुंडा कौन हैं और हमारे सुनहरे भविष्य को गढ़ने मे उनका क्या योगदान है। बैसाखी के सहारे खडे हो रहे और चलना सीख रहे लोग जब बैसाखी की उपेक्षा करने लग जाय, तब उसका गिरना तय माना जाता है। वर्तमान में आदिवासियों की स्थिति इसी प्रकार की है।
कौन थे जयपाल
जयपाल सिंह मुंडा एक जाने माने खिलाड़ी राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद् और कुशल प्रशासक थे। वे आदिवासी अधिकारो और आदिवासी राज्य झारखंड के प्रणेता थे। जयपाल सिंह मुंडा का जन्म 3 जनवरी, 1903 को खूंटी के टकरा पाहनटोली में हुआ था। जयपाल ‘मुंडा’ आदिवासी समुदाय से थे। इनके पिता का नाम अमरू पाहन तथा माता का नामराधामणी था। इनके बचपन का नाम प्रमोद पाहन था। वह असाधारण रूप से प्रतिभाशाली थे। जयपाल सिंह मुंडा की प्रारंभिक शिक्षा उनके पैत्रिक गांव में ही हुई। उन्हे सन 1910 में रांची के चर्च रोड स्थित एसपीजी मिशन द्वारा स्थापित संत पॉल हाईस्कूल में दाखिला मिला और यहीं से 1919 में प्रथम श्रेणी से मैट्रिक पास किया। सन 1920 में जयपाल सिंह को कैंटरबरी के संत अगस्टाइन कॉलेज में दाखिला मिला। सन 1922 में आक्सफोर्ड के संत जांस कॉलेज में दाखिला मिला।[1]
कैप्टन जयपाल सिंह का बलिदान
जयपाल सिंह नामित कप्तान थे। एक मुंडा आदिवासी, जयपाल को मिशनरियों द्वारा ऑक्सफोर्ड में अध्ययन करने के लिए लंदन भेजा गया था और उन्होंने इंग्लैंड में एक हॉकी खिलाड़ी के रूप में अपना नाम कमाया था, जिसमें प्रतिष्ठित विश्व हॉकी पत्रिका भी शामिल थी।
उनका चयन भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में हो गया था। ऐसा करने वाले वह पहले आदिवासी थे। आईसीएस का उनका प्रशिक्षण प्रभावित हुआ क्योंकि वह 1928 में एम्सटरडम में ओलंपिक हॉकी में भारतीय टीम के कप्तान के रूप में नीदरलैंड चले गए थे। उन्हें 1928 के ओलंपिक में भाग लेने के लिए छुट्टी नहीं दी गई थी। हालाँकि, उन्होंने चेतावनियों पर कोई ध्यान नहीं दिया और दस्ते के साथ एम्स्टर्डम की यात्रा की। वापसी पर उनसे आईसीएस का एक वर्ष का प्रशिक्षण दोबारा पूरा करने को कहा गया, उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया लेकिन हाकी के मोह को न छोड़ पाने के कारण सिविल सेवा से त्यागपत्र दे दिया था। उनकी कप्तानी में भारत ने ओलंपिक का प्रथम स्वर्ण पदक जीता। ब्रिटेन में वर्ष 1925 में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे।
ओलंपिक के बाद
जयपाल लंदन से लौट कर आने बाद उनहों ने कोलकाता में बर्मा सेल में नौकरी जॉइन कर ली बाद में रायपुर स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए। इसी क्रम में कुछ दिनों तक बीकनर नरेश के यहाँ राजस्व मंत्री की नौकरी भी की। बीकनर के राजा कि नौकरी छोडकर सन् 1938 में आदिवासी महासभा के अध्यक्ष बने। 1938 की आखिरी महीने में जयपाल ने पटना और रांची का दौरा किया। इसी दौरे के दौरान आदिवासियों की खराब हालत देखकर उन्होंने राजनीति में आने का फैसला किया। इसके बाद जयपाल सिंह देश में आदिवासियों के अधिकारों की आवाज बन गए।l
संविधान सभा में जयपाल
भारतीय संविधान को बनाने में जिन नायकों की भूमिका रही है रही है, उनमें जयपाल सिंह का विशिष्ट स्थान है। “मैं उन उन लाखों अज्ञात लोगों की ओर से बोलने के लिए यहां खड़ा हुआ हूं, जो सबसे महत्त्वपूर्ण लोग हैं, जो आजादी के अनजान लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं और जिनको बैकवर्ड ट्राइब्स, प्रिमिटिव ट्राइब्स, क्रिमिनल ट्राइब्स और जाने क्या-क्या कहा जाता है।” यह शब्द हैं जयपाल सिंह मुंडा के जो 1946 में खूंटी ग्रामीण क्षेत्र से कांग्रेस के पूरनोचन्द्र मित्र को हरा कर संविधान सभा के सदस्य बने। वे संविधान सभा में आदिवासियों के सबसे बड़े पैराकार बन कर उभरे।
संविधान सभा में आदिवासी समुदाय के सिर्फ 10 सदस्य ही निर्वाचित हूये। उनमें से 9 सामान्य निर्वाचन क्षेत्र और 1 रियासतों के प्रतिनिधि के तौर पर चुने गये थे। लेकिन ड्राफ्टिंग के समय लगभग आधे से अधिक आदिवासी सदस्यों का कार्यकाल खत्म हो चुका था या उन्हें उस समय करने का मौका नहीं मिला। इसलिए सारा भार जयपाल सिंह मुंडा जी, उत्तर पूर्वी जे.जे.एम. निकोल्स राय व ठा. रामप्रसाद पोटाई (रियासत प्रतिनिधि) पर आ गया। एक जनवरी 1948 को हुए खरसावां गोली कांड ने उन्हें बहुत दुखी किया इसके बाद उन्होने एक आदिवासी महासभा का नाम बदल कर झारखंड पार्टी नामक राजनैतिक दल बनाया।
आदिवासियों के लिये योगदान
1947 में जब अल्पसंख्यक और वंचितों के अधिकारों पर पहली रिपोर्ट प्रकाशित हुई, तो उसमें सिर्फ दलितों के लिए विशेष प्रावधान किए गए थे। आदिवासियों की अनदेखी देखकर मुंडा आगे आए। उन्होंने आदिवासियों की वकालत करते हुए संविधान सभा में कालजयी भाषण में कहा कि पिछले छह हजार साल से अगर इस देश में किसी का शोषण हुआ है तो वे आदिवासी हैं। अब भारत अपने इतिहास में नया अध्याय शुरू कर रहा है, तो हमें अवसरों की समानता मिलनी चाहिए।
संविधान सभा की बैठकों-बहसों में जयपाल सिंह मुंडा ने बहुत ही स्पष्टता और मजबूती के साथ बार-बार आदिवासी पक्ष को रखते हुए चाहा था कि नया भारत ‘ आदिवासियत’ के दर्शन को स्वीकार करे।[2] नए भारत के रचाव के लिए आदिवासियों को उनकी स्वतंत्रता, संप्रभुता वापस करने की गारंटी करे, जिस पर उन्होंने कब्जा बनाए रखा है। जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों के नैसर्गिक अधिकारों की बहाली के हरसंभव प्रयत्न किए जाएँ। इसके लिए उन्होंने मौलिक अधिकारों में इसे शामिल करने की माँग की, परंतु इसको ठुकरा दिया गया।
नवगठित प्रारूप समिति के सदस्यों की संख्या सात थी, जिसमें एक भी आदिवासी प्रतिनिधि को नहीं रखा गया। इसके बाद भी जितनी समितियाँ, उपसमितियाँ बनीं, उनमें आदिवासियों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। जयपाल इस सांप्रदायिक तथाकथित जनसंख्यात्मक प्रतिनिधित्व पर पहले ही सवाल उठा चुके थे।
भारत का संविधान जब तैयार किया जा रहा था तब जयपाल सिंह मुंडा ने कहा था, “हमलोग आजादी के पहले लड़ाके हैं. लोकतंत्र के निर्माता. आपलोग आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते, बल्कि समानता, सहअस्तित्व और लोकतंत्र उनसे ही सीखना होगा” देश के आदिवासियों के मौलिक अधिकारों, वोटिंग के अधिकार और संविधान में निहित आज देश में आदिवासियों को तमाम तरह के अधिकार, नौकरियों और प्रतिनधित्व में आरक्षण, जंगल की जमीन से जुड़े अधिकार आदि मिले हैं। जयपाल सिंह मुंडा की पहल का ही नतीजा रहा उनकी ही कोशिशों ने 400 आदिवासी समूह को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाया।
संविधान सभा में मौलिक अधिकारों पर चर्चा के दौरान आदिवासियों के जमीन पर अधिकार को मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 13) में शामिल किये जाने की मांग (30 अप्रैल 1948) [3] को मजबूती से उठाया गया ताकि भविष्य में आदिवासियों की बेदखली और शोषण को रोका जा सके। इसके लिये विशेष प्रावधानों की जरूरत थी।
जब अनुसूचित क्षेत्रों पर चर्चा आखिरकार सितंबर 1949 में हुई, जो ‘आदिवासी क्षेत्रों के शासन के लिए प्रावधान शामिल हैं, सत्ता के हस्तांतरण को सक्षम बनाता है, उनकी परंपराओं और प्रथाओं की रक्षा करता है [और], सबसे महत्वपूर्ण, उनके भूमि अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी देता है’।
उन्होंने 1935 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया उत्तर-पूर्व एवं असम पूर्णतः एवं आंशिक वर्जित जनजातीय क्षेत्र और पूर्णतः वर्जित एवं आंशिक वर्जित जनजातीय क्षेत्र (असम को छोड़कर) एक्ट, जिन्हें हम संविधान की पाँचवीं और छठी अनुसूची के रूप में जानते हैं, इसका विरोध किया था। एक ही आदिवासी समाज के लिए दो अनुसूचियों पर भी उनकी आपत्ति थी। ये दोनों ही अनुसूचियाँ वास्तविक अर्थ में सिर्फ एक खास क्षेत्र के भीतर ही आंशिक तौर पर आदिवासियों के ‘प्रोटेक्शन’ का दायित्व लेती थीं। उनके अधिकार उनके साथ नाभिनालबद्ध थे, जबकि ‘प्रोटेक्टेड’ स्टेटस सिर्फ अधिसूचित क्षेत्र तक ही सीमित थे। जिन्हें जनसंख्या के आधार पर कभी भी गैर- अधिसूचित किया जा सकता था। और हम जानते हैं कि इन अनुसूचियों के कारण असम, बंगाल, अंडमान द्वीप समूह और देश के दूसरे राज्यों में औपनिवेशिक दिनों में ले जाए गए आदिवासी अब तक कीमत चुका रहे हैं। डॉ अंबेडकर के शब्दो में.. “उन्होंने मुझसे एक और सवाल पूछा है। वे जानना चाहते हैं कि अनुसूचित जनजाति का कोई सदस्य, जो अनुसूचित क्षेत्र या कि जनजातीय क्षेत्र में रहता है, यदि वह अनुसूचित एवं जनजातीय क्षेत्र अथवा दोनों तरह के क्षेत्रों से बाहर के किसी क्षेत्र में जाकर रहने लगे, पलायित कर जाए, तो क्या उसके संवैधानिक अधिकार वही रहेंगे, जो उसे अनुसूचित या जनजातीय क्षेत्रों में प्राप्त थे या कि उसे स्थानीय सरकार से फिर से अपने इस संवैधानिक अधिकार की माँग करनी पड़ेगी? मैं इस सवाल का जवाब देने में असमर्थ हूँ। अगर ऐसा सवाल आगे चलकर उठता है तो उसका जवाब देना अभी ठीक नहीं होगा। शायद संविधान की कुछ धाराएँ ही इस सवाल को सुलझाने में मदद कर पाएँगी, ऐसा मैं सोचता हूँ । लेकिन जहाँ तक इस सवाल पर मसौदा संविधान की जो स्थिति है, उसके अनुसार अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्र को छोड़ते ही अनुसूचित जनजाति होने के संवैधानिक हक से वे वंचित हो जाएँगे। इस संबंध में मेरी साफ समझ है कि अनुसूचित क्षेत्र और जनजातीय क्षेत्र को छोड़कर अनुसूचित जनजातियों के लिए इन दोनों से बाहर के क्षेत्रों में उनके संवैधानिक स्थितियों को बहाल रख पाना व्यावहारिक रूप से असंभव है।”[4]
उत्तर – पूर्व और असम की छठी अनुसूची में राज्य के भीतर ही स्वायत्तता की व्यवस्था थी, जबकि असम को छोड़कर अधिसूचित क्षेत्रों की पाँचवीं अनुसूची में स्वायत्तता की कोई व्यवस्था नहीं थी।[5]
जयपाल सिंह मुंडा को प्रांतीय संविधान समिति की एक उप-समिति का सदस्य बनाया गया। उन्होंने संविधान समिति द्वारा अनुसूचित जनजाति शब्द का इस्तेमाल करने का बार-बार विरोध किया और आखिर मे वो सभा के कार्य को छोड़ कर बिहार वापस आ गए। वे चाहते थे कि संविधान मे ‘आदिवासी’ शब्द का इस्तेमाल हो। आदिवासी शब्द को संविधान से विलोपित करने का प्रस्ताव पेश किया। आंबेडकर ने आदिवासी क्षेत्रों के लिए बनी उपसमितियों की रिपोर्ट आए बिना ही और के. एम. मुंशी व मावलंकर के विरोध कारण में जब आंबेडकर ने इन्हें संविधान सभा में रखा तो जयपाल सिंह मुंडा ने कड़ा विरोध किया।
वे आदिवासी अधिकारों, जंगल जमीन के मुद्दो के साथ आदिवासी सभ्यता और भाषाओं को लेकर भी सजग थे। संविधान सभा के सदस्य जयपाल सिंह ने संथाली, गोंडी, मुंडारी और उरांव जैसी आदिवासी भाषाओं, जिसे लाखों लोग बोलते हैं, को 8वीं अनुसूची में शामिल किए जाने का प्रस्ताव दिया था। मगर शामिल नहीं हो सकी। कुल मिलाकर 8 वीं अनुसूची बगैर किसी सिद्धांत की बनाई गई सूची है जिसमें भारत के 4 भाषा परिवारों की कुल 1652 भाषाओं में से 22 को चुनकर बनाई गई है। सूची का आधार न तो जनसंख्या है और न समृद्ध साहित्य और न भूगोल। यदि जनसंख्या को आधार मान लिया जाए तो संस्कृत से कई गुना आबादी गोंडी, मुंडारी और भीली की है। इस तरह लखियों बोले जाने वाली आदिवासी भाषाओं को संरक्षित करने के कोई प्रयास नहीं हुये।
धर्मांतरण में सर्वाधिक उपयोग उन आदिवासी समुदायों का किया गया, जो भारत की मूल चेतना में बसे हुए थे। उनका कहना था, “हिंदू, मिशनरी और पूंजीपति सब एक ही हैं जो न सिर्फ एक-दूसरे की रक्षा करते हैं बल्कि मिलजुल कर आदिवासी क्षेत्रों में अपना झण्डा गाड़ते हैं। लेकिन हमारे लोगों को बहलाना आसान नहीं है।”
उनकी गरीबी, शिक्षा की अनुपलब्धता और स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं धर्मांतरण का सबसे पुख्ता आधार बनती चली गई। मगर एक आदिवासी नेता इतनी प्रखर दृष्टि के साथ भारत के मूल विचार के साथ खड़े रहे कि उन्होंने अपने समय में धर्मांतरण की रणनीतियों को ध्वस्त कर दिया। ये महान व्यक्ति थे जयपाल सिंह मुंडा। उन्हें ईसाई मिशनरियों ने बेहतर पढ़ाई के लिए अपने खर्च पर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय भेजा। मंशा थी कि वे ऑक्सफोर्ड से पढ़कर लौटेंगे और भारत में अपने आदिवासी समुदाय को उस दिशा में ले जाएंगे, जिस दिशा में चर्च उन्हें ले जाना चाहता था। मगर ऑक्सफोर्ड पहुंचकर उन्होंने एक अच्छे हॉकी खिलाड़ी के रूप में ख्याति अर्जित की और जब पढ़ाई के बाद भारत लौटे तो आदिवासियों को एकजुट करने में जुट गए। उन्होंने ईसाई मिशनरियों के बताए रास्ते पर चलने के बजाय अलग रास्ता चुना और सन् 1938 में आदिवासी महासभा का गठन किया। बाद में वे चुनाव लड़े और संसद भी पहुंचे। उन्होंने अपने क्षेत्र अर्थात बिहार-झारखंड के आदिवासियों के लिए ही नहीं, बल्कि समूचे भारत के आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। लेकिन आदिवासियों को अपने मूल धर्म, पूजा पद्धति, धार्मिक परंपराओं से अलग नहीं किया। यह सिंह की जीत थी और उनका उपयोग करने वाली रणनीति की हार।
जयपाल और राजनीति
जयपाल सिंह मुंडा स्वतंत्रता सेनानी भी रहे। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय आदिवासी महासभा ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सभाए आयोजित कीं, परिणाम स्वरूप आदिवासी महासभा के नेताओं को जेल भेज दिया गया।
जयपाल सिंह मुंडा और आदिवासी महासभा के संयुक्त प्रयास को कुचलने के लिए कांग्रेस ने दो ब्राह्मणों- राजेंद्र प्रसाद (अध्यक्ष) और अमृत लाला विट्ठलदास ठक्कर बापा (उपाध्यक्ष) के नेतृत्व में “आदिम जाति सेवक मंडल” का गठन 8 जून 1946 को किया ताकि आदिवासियों के मध्य कांग्रेस की पकड़ बनाई जा सके। कांग्रेस से अलग हो कर ठेकाले उरांव ने “सनातन आदिवासी महासभा” का गठन किया। दोनों संस्थानों ने आदिवासियों के ब्राह्मणीकरण को अपना लक्ष्य बनाया।[6]
वहीं जयपाल सिंह मुंडा ने दूसरी तरफ 1948 में आदिवासी लेबर फेडरेशन की स्थापना और 1 जनवरी 1950 को अखिल भारतीय आदिवासी महासभा को “झारखण्ड पार्टी” में परिवर्तित कर दिया।[7] झारखंड पार्टी ने 1952 के आम चुनावों में 32 विधायक, 4 संसद, 1957 में 34 विधायक, 5 सांसद, 1962 में 22 विधायक और 5 सांसद चुने गए। तीसरे आम चुनावो के बाद 1963 को झारखंड पार्टी का इस शर्त- “झारखंड राज्य का कांग्रेस गठन करेगी” पर विलय कर दिया गया।[8] जयपाल सिंह मुंडा को बिहार का उपमुख्यमंत्री, पंचायत एव सामुदायिक विकास मंत्री बनाया गया लेकिन मतभेदों के चलते मात्र एक महीने बाद ही को इस्तीफा दे दिया। 1967 में एक बार फिर संसद सदस्य चुने गये।[9]
“कांग्रेस ने धोखा दिया और झारखण्ड पार्टी का विलय सबसे बड़ी भूल थी मैं झारखंड पार्टी में लौटूंगा और अलग झारखंड राज्य के लिए आन्दोलन चलाऊंगा” लेकिन इस वक्तव्य के एक हफ्ते बाद जयपाल सिंह मुंडा 20 मार्च 1970 को दिल्ली स्थित आवास पर संदिग्ध अवस्था में मृत पाए गए।[10]
उनके मरणोपरांत उन्हें भारत रत्न से नवाजने की मांग की सुगबुगाहट जरूर दिखी, लेकिन ये तब तक संभव नहीं दिखती जब तक कि सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियां एकजुट होकर इसके लिए आगे ना आएं।[11]
जयपाल सिंह मुंडा का योगदान भारत के आदिवासियों के लिए उतना ही है जितना भीमराव आंबेडकर का अनुसूचित जातियों के लिए हैं। आदिवासियों के लिहाज से कई मायनों में जयपाल सिंह मुंडा के योगदान को आंबेडकर के योगदान से भी ज्यादा ही कहा जा सकते हैं।
आदिवासियों की तरफ से उन्होंने सविधान सभा में बोलते हुए कहा था कि, “एक जंगली और आदिवासी समुदाय से आने वाले व्यक्ति के रूप में मुझे प्रस्ताव के कानूनी बारिकीयों का ज्ञान तो नहीं है। लेकिन मेरा सामान्य ज्ञान कहता है कि आजादी और संघर्ष की लड़ाई में हर एक व्यक्ति को कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहिए। अगर पूरे हिंदुस्तान में किसी के साथ ऐसा खराब सलूक किया जाता है तो वह मेरे लोग हैं।”[12]
मुंडा के कारण आदिवासियों को संविधान में कुछ विशिष्ट अधिकार मिल सके, लेकिन व्यवहार में उनका शोषण अब भी जारी है। वे आजीवन आदिवासी अधिकारों, सभ्यता व अस्मिता के साथ साथ 50 प्रतिशत की अधिक आदिवासी जनसंख्या वाले छोटानागपुर एजेंसी और संथाल परगना को मिलाकर आदिवासी राज्य की स्थापना करना चाहते थे। उनकी आदिवासियों से संबंधित कई मांग पूरी कर नहीं हुई और न ही झारखंड राज्य बनाया गया जिसका नतीजा यह रहा कि आदिवासी इलाकों में शोषण, विस्थापन, नरसंहार, फर्जी हत्याकांड, अशिक्षा, गरीबी नक्सलवाद जैसी समस्या पैदा हो गई। जो आज भी देश में परेशानी का सबब बनी हुई है। सन् 2000 में झारखंड राज्य के निर्माण के साथ उनकी मांग आंशिक रूप से पूरी तो लेकिन तब तक आदिवासियों की संख्या राज्य में घटकर करीब 26 फीसद ही बची। 1951 में यह 51% हुआ करती थी।
आदिवासियों से संबंधित मामलों में ऐसा अनेकों बार हुआ, जिस पर जयपाल सिंह मुंडा ने बार – बार आपत्ति की। आदिवासी समाज में उनका योगदान अविस्मरिनीय है लेकिन उनकी बहुत सी मानवीय आकांक्षाएँ और कमजोरियाँ उन्हे वो मुकाम नहीं दिला सकीं जो उनके समकालीन अन्य नेताओं और समाज सेवकों को हासिल हुईं। एक अकेला इंसान सब कुछ नहीं कर सकता।
जयपाल सिंह मुंडा को आदिवासी सर्वोच्च मरांग गोमके के नाम से पुकारते हैं। मरांग गोमके मुंडारी शब्द है, जिसका अर्थ है सर्वोच्च नेता। वे एक सर्वोच्च नेता ही थे जिसे न ही आदिवासियों के हितैषियों ने और न ही इस देश ने याद रखा, दुर्भाग्य की बात तो यह है कि उसके बाद उन्हें भुला दिया गया। आज ऐसे ही महामानव की जरूरत है जिनके बारे में एक एक आदिवासी जाने और आजाद भारत में अपने सच्चे पैरोकार को याद करे।
“शहीद कभी मरते नहीं हैं और विस्मृत नहीं होंगे,
जैसे एक दिन हम हो जाएंगे बूढ़े और खत्म,
काल के पार भी जाएंगे वे सदियों तक जिन्हें,
भुलाया नहीं जा सकेगा और हर दिन
सूरज के डूबने और उगने पर हम उन्हें याद करेंगे”
― जयपाल सिंह मुंडा
सेवा जोहार
संदर्भ एवं स्रोत
- उपाध्याय अमलेंदु, आज भी जयपाल सिंह मुंडा की प्रासंगिकता बरकरार है, हस्तक्षेप com., (3 जनवरी, 2023 02:10 AM), https://www.hastakshep.com/jaipal-singh-munda- biography-in-hindi/.
- अश्विन कुमार पंकज, मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा, प्रभात प्रकाशन दिल्ली, आईएसओ 9001: 2015
- डॉ. जितेन्द्र मीना, जयपाल सिंह मुंडा आदिवासी समाज की राजनीति और विचारधारा की प्राणवायु, Newsclick. (3 जनवरी, 2023, 02:25 AM), https://hindi.newsclick.in/Jaipal- Singh-Munda-The-lifcblood-of-politics-and-ideology-of-tribal-society.
- अश्विन कुमार पंकज, मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा, प्रभात प्रकाशन दिल्ली, आईएसओ 9001: 2015
- Ibid. (page no. 132)
- डॉ. जितेन्द्र मीना, जयपाल सिंह मुंडा आदिवासी समाज की राजनीति और विचारधारा की प्राणवायु, Newsclick. (3 जनवरी, 2023, 02:25 AM), https://hindi.newsclick.in/Jaipal- Singh-Munda-The-lifcblood-of-politics-and-ideology-of-tribal-society.
- अश्विन कुमार पंकज, मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा, प्रभात प्रकाशन दिल्ली, आईएसओ 9001: 2015
- Ibid. (page no. 18)
- Ibid. (page no. 20)
- Ibid. (page no. 133)
- Ibid. (page no.18)
- मीना supra note 1.