सिलेगर आंदोलन : एक फर्जी एनकाउंटर, आजादी, संविधान व लोकतंत्र के बीच आदिवासी
क्या मेरे लोग हमेशा आंदोलन और सरकार को ज्ञापन ही देते रहेंगे? आखिर क्यों मेरे लोगों को नक्सल का टैग लगाते है?
“सिलगेर” क्या है?
‘सिलगेर’ एक आवाज है हमारे पुरखों की, जो हजारो सालों से बाहरी लोगो से लड़ रहे। आर्य, मुगल, अंग्रेज़ और अब शासन इन सबने आदिवासी की जल-जंगल-जमीन छीनने की हमेशा कोशिश की है और हमने हमेशा सबको मुँह तोड़ जवाब भी दिया है, चाहें वह फिर खरसावां हत्याकांड हो या इंद्रावैली हत्याकांड, हम मरे पर, हर जगह लड़े है, ऐसी ही बहुत जगह लड़ाई जारी है और सिलगेर उन्ही में से एक है, जो कैम्प के विरुद्ध नही, अपनी जंगल में रहने की आजादी के लिये किया जा रहा है। 2021 में सिलगेर में मुलनिवासी बचाव मंच की स्थापना की गयी, जो की एक कानूनी मंच है जो आदिवासियों पर होने वाले जूर्म के खिलाफ आवाज उठा रहा है। सिलगेर का अंदोलन पुलिस कैम्प के विरोध के लिये नही बल्कि जंगल की स्वतंत्रता और स्वायतता के लिये है। प्रशासन वह स्वतंत्रता छिनना चाहती है और आदिवासियों को बिना पुछे ही कार्य करती है। नरसंहार करना, नक्सल बनाकर एन्काउंटर करना उनके लिये आम बात हो गई है। सिलगेर बीजापुर और सुकमा जिले के ठीक बीचों-बीच स्थित है। देखा जाये तो बीजापुर मे 85 पुलिस कैम्प तो दन्तेवाड़ा में 76 पुलिस कैम्प है। अगर देखा जाये तो यह पाकिस्तान बार्डर से भी कही गुना ज्यादा एक सीमित क्षेत्र में!
मुलनिवासी बचाव मंच की स्थापना 2021 में हुई जब सिलगेर का अंदोलन चल रहा था, जिसकी सुकमा, बीजापुर, दंतेवाडा में अलग अलग शाखाये हैं। रघू मिडीयाम जी और उनके बाकी साथी जो इस आंदोलन का नेतृत्व करते है, सिलगेर के आंदोलन के बाद दक्षिण बस्तर के संभाग के इलाको में होने वाले यह आंदोलन को गति आई यह दिखता है। सिलगेर नरसंहार से पहले यह आंदोलन बहुत बडे़ पैमाने पे सामने नही आया क्योंकि उससे पहले किसी भी न्यूज चैनल को यह दिखाने कोई भी दिलचस्पी नही थी। अभी का अगर देखे तो यह आंदोलन बाकी 20 जगह चल रहा है। रघू मिडीयाम जो अध्यक्ष है मुलनिवासी बचाव मंच के, वह कहते हैं की, सिलगेर आंदोलन को जानने हेतू उन्हे बहुत सारी सम्मेलनों मैं बुलाया गया; लॉकडाऊन खुलते ही उन्हे दिल्ली मै दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में बुलाया गया था और उन्होने वहा के मंच पर यह मुद्दा भी रखा, यह सम्मेलन 35 मिनिट तक चला जिसमें सिलगेर के आंदोलन के कारण बताये। यही नहीं उनको 2 अक्टूबर, 2022 को रायपुर, छत्तीसगढ़ के एक प्रोग्राम में अपने मंच की बात रखी और पेसा ऐक्ट में होने वाले नये परिवर्तन पर खेद जताया। इन दोनों जगह जाने और अपनी बात रखना उनके लिये एक नया अवसर था पर कहीं पर भी इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिये या आवाज उठाने के लिये उन्हें मदद नही मिली। बस दिल्ली एक का सम्मेलन अखबार मे छपा था।
मुलनिवासी बचाव मंच और मंच का उद्देश्य
मुलनिवासी बचाव मंच का उद्देश्य यही है की उनके संवैधानिक 5वीं अनुसूची वाले क्षेत्र मे कुछ भी उनके गैरहाजरी मे ना हो। कैम्प बनाने का विरोध नही है, पर बात जंगल में रहने की आजादी की है,आदिवासियों की संस्कृति प्रकृति से जुड़ी है, उसको बचाना है । जबसे कैम्प बने हैं तब से जमीन हड़प लेना, बिना ग्राम सभा के निर्णय लेना, महिलाओं पर अत्याचार बढते जा रहे है। अभी कल ही छत्तीसगढ़ के भैरमगढ़ में पुलिस वाले ड्रोन में कैमरे लगा कर नदियों और तालाबों में नहाती हुई निवस्त्र आदिवासी लड़कियों/औरतों के वीडियो बनाते हैं, शिकायत करने पर पुलिस ने आदिवासियों को अपनी बात नहीं कहने दी और आदिवासियों पर लाठियों से हमला किया I यही नही तो दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा और बीजापूर मे कुल-मिलाके अभी तक 116 पुलिस कैम्प है। काफी रीपोर्ट यह बताता है की आदिवासी पुलिस कम्प का विरोध करते है पर बहूत कम लोगो ने लिखा है की आखिर क्यु पुलिस कैम्प का विरोध क्यो हो रहा है? उनके साथ शासन ने हमेशा आदिवासी क्षेत्र मे मिलने वाले नैसर्गिक संपत्ति को उपयोग किया है, पर क्या दक्षिण बस्तर के गाँव में फोर लेन सड़क की जरुरत है, और है तो फिर क्यों है? नैसर्गीक संपत्ति का निर्यात करने के लिये! या फिर टुरिज्म को बढ़ावा देने के लिये? परिणाम तो आदिवासीयों पर ही होगा!
कार्पोरेटीकरण व सैन्यकरण के विरोध में जारी मूलवासी जनांदोलनों में आगे आयें। इसके अलावा मुलनिवासी बचाव मंच की माँग है की स्कूल, यूनिवर्सिटी, हॉस्पिटल, वाचनालय की मांग करते है। आदिवासी आश्रमों मे होने वाले अन्याय और अत्याचार और सहे नही जायेंगे। अभी 2022 मे छत्तीसगढ़ सरकार ने जो पेसा कानून मे परिवर्तन किये है जिससे मूल ग्राम सभा की परीभाषा का महत्व खत्म हो रहा है क्योंकि निर्णय लेने का पॉवर अब 3 स्टेज से होगा; कलेक्टर, तहसीलदार और पटवारी और बाद में ग्रामसभा को पुछा जायेगा, यह नया परिवर्तन का ग्रामीण विरोध करते है।
आंदोलन और परिणाम
बस्तर संभाग में पिछले डेढ़ सालों से ज्यादा आदिवासी मूलवासी जनता ग्राम सभाओं की अनुमति के बिना खोले जा रहे पुलिस कैंपो को, नरसंहारों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते आ रहे हैं। उनकी मांगों को सरकार पूरा नहीं कर रही है। नये-नये पुलिस कैंप सड़क बनाते हुए आदिवासियों को उनकी जन्मसिद्ध अधिकार जल-जंगल-जमीन से वंचित किया जा रही है।
हाल ही में 10 दिसंबर, 2022 को ग्राम पंचायत कुंदेड़ में 2 परिवारों की 10 एकड़ उपजाऊ जमीन जबरन छीन कर नया पुलिस कैंप स्थापित किया जा रहा है!! कुंदेड़ गांववासियों का कहना है की हमारे ग्राम सभा का अनुमति लिए बगैर सुकमा जिला प्रशासन द्वारा पुलिस कैंप बिठाया जा रही है और साथ ही जबरन हमारी जमीनो को छीनकर! क्या इससे रक्षकों पर भरोसा आदिवासियों में आ पायेगा, जिस मकसद से कैंप खोलने के लिये कहते हैं? गांव के ग्रामीणों ने 19 दिसंबर, 2022 को जन साथ रैली प्रदर्शन करते हुए वहाँ पर तैनात पुलिस अधिकारियों से वाद-विवाद में पता चला की बिना ग्राम सभा के मिटिंग के जिला प्रशासन की ओर से ग्राम सभा को 5 लाख रुपये व सरपंच को एक लाख रूपया देने की बात पुलिस जवानों ने कही। कुंदेड़ पंचायत ग्राम सभा अध्यक्ष योगामी व ग्राम सभा के सदस्यों का कहना यही है की जिला प्रशासन की और से हमारी ग्राम सभा को न ही 5 लाख दिए और प्रस्ताव पारित किया कि ये सरासर झूठा आरोप पुलिस जवानों द्वारा लगाए जा रहे हैं।
22 दिसंबर, 2022 को फर्जी ग्राम सभा के विरोध में भंडाफोड़ करते हुए धरना पर बैठे 16 ग्रामीणों से पुलिस जवानों द्वारा मारपीट किया गया। बस्तर संभाग में चलने वाले आदिवासियों की जनांदोलनों में सिलगेर, पुसनार, देव्यापलर्जी नम्बीधारा, सिंगाराम, गोंपड़, गोंडेरास आदि जगहों में आंदोलन जारी है। इनमें से 15 दिसंबर, 2022 बुर्जी विरोध में आंदोलन कर रहे 100 से अधिक ग्रामीणों के साथ पुलिस जवानों ने मारपीट किया। इन घटनाओं को न्यायिक जांच होना चाहिए। हमारी आंदोलन के मांगों को सरकार पूरा करने को तैयार नहीं है। उलटे ही आंदोलन कर रहे जनता को बेदम मार-पीट कर झूठे केसों में गिराफ्तार करके जेलों में ठूसा जा रहा है।
दक्षिण बस्तर के 20 से ज्यादा गाँवों में अभी तक आंदोलन हो चुके है और जारी है। 15-16 दिसंबर मे बुर्जी मे जो अंदोलन हो रहा था उसमे पुलिस ने 15 से ज्यादा लोगो पर रात भर और दुपहर 2 बजे तक लाठी चार्च किया था जिसमे आधे लोग गंभीर हालत मे थे। ऐसी ही बाकी इलाके की स्थिती है।
ग्राम पंचायत गोण्डेरास, जिला सुकमा, थाना पुलाबगडी, आम ग्रामीणों से मारपीट किये हैं। इसलिए मूलवासी बचाओ मंच आपिल करती है कि बेकसूर आम आदिवासियों के ऊपर इस तरह पुलिस प्रशासन अत्याचार करना बंद करे अभी भी देतंवाडा क्षेत्र में रातोंरात को लोगों को पकड़ कर ले जाने का सिलसिला जारी हैं। निलावयम, 25 तारीख़ को दो लोगों को ले गये, चिरमूल, 28 तारीख़ को दो लोगों को ले गये, 28 तारीख़, रात को गोण्डेरास के निवासी दो लोगों को ले गये जिनमें एक लड़की और एक लड़का था और मारपीट भी किये हैं गोण्डेरास में इस तरह का हालात है अभी.
रघू मिडियाम जी बताते है,“पिछले 2सालो से कोई भी घर नही गया है जिसके बजह से फ़सल भी नही हो पायी” और अगर आप यहा का देखो तो बहूत कम स्कूल और कॉलेज है जिसकी वजह से अन्य छात्र भी जा नही पा रह हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल उनके चुनाव प्रचार में आदिवासियों को न्याय देने व ग्राम सभा (5वीं अनुसूची) को अमल में लाने व संवैधानिक अधिकार, लोकतंत्र गणराज्य के सबके साथ सबका विकास मनगढ़ कहानी को जनता समझ रही है।“ साथ ही मै वह केहते है की, “सिर्फ 3 महिने ही खेत मे काम रहता है,और साल भर गुजारा करने के लिये उन्हे दुसरे राज्य मै काम करने ज्याना पडता है I” सरकार ने रोजगार पर भी ध्यान देना चाहिये I
आदिवासियों के लड़ाई को माओवादी का नाम देने की साजिश
आज के काल मे जो भी मुलनिवासी/आदिवासी/ट्रायबल जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ने को अत्याचार के विरुद्ध उठता है तो उसे नक्सल नाम दे कर मार दिया जाता है या जेल मेन डाल दिया ज्याता है। क्या अपने हक के लिये लड़ने वाले आदिवासी को नक्सल बोलना या माओवादी बोलना ठीक है? और क्या आदिवासी पर मावोवादी पार्टियो की विचारधारा लादना ठीक है? मध्य भारत मे 5वीं अनुसूची में आने वाले आदिवासियों को नक्सल समझा जाता है। जब भी वह माइनिंग के विरोध पर खडे होते है तो हमेशा एक देशद्रोही के नाम से उन्हे जाना जाता है।
नक्सलवाद की शुरुवात 1967 से हुयी थी, पर आदिवासी अपने हक के लिये काफी पहल से लड़ रहे हैं आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी। जब उसका सब छीन जायेगा तो करेगा क्या? जायेगा कहाँ? आदिवासियों को भी यह समझने की जरुरत है की बाहरी लोगो की थोपी गयी विचारधारा से हमारे सिर्फ एनकाउंटर होंगे और हमे नक्सली का टैग लगेगा। हमारे पुरखा पहले से ही लड़े थे और हमें किसी भी विचारधार के साथ जुडने की जरुरत नही हैI
बहुत सारे ग्रामीण आज भी माओवादियों को अपना रक्षक मानते है, पर उनको यह भी देखना चाहिये की क्या अभी तक जंगल उजड़ा नहीं? और क्या माओवादी पार्टी चलाने वाला आदिवासी है? क्या निर्णय लेने वाला आदिवासी है? जो भी आदिवासी दक्षिण बस्तर संभाग और गडचिरोली मे रहते है क्या वह नक्सल विचारधारा अपने मर्जी से चुनते है? क्या हम उनके लिये बस एक हथियार भर नहीं हैं? पर अगर देखा जाये तो आदिवासीओ पर माओवादी और सरकार दोनो का दबाव है I ऐसे बहुत सारे प्रश्न उठते हैं जब आप उस ग्राम मे जाते हो जब कोई आंदोलन हो! माओवादी और सरकार दोनो बराबर अंश से आदिवासी का शोषण कर रहे हैं। यही दो लोग है जो ना तो बस्तर संभाग का विकास चाहते है ना हीं चाहते है की आदिवासी समुदाय बचे।
ऐसी ही एक हकीकत
ग्रामीन बताते है की, “कुमारी पायके वेको एक लया जिसका का जन्मस्थान –निराम (ब्लॉक –भैरमगढ़) जन्म वर्ष सन 2004, पिता (नावा बाबो) श्री मुड़ाल वेको के घर में पैदा हुई थी, अंदरूनी क्षेत्रों में जहाँ सरकार का नजर ही नहीं वहाँ गांव के लोग नीति-नियम बनाते हैं। ऐसे जगह बच्चपन से ही लड़का/लड़कियों को संगठन में जाना अनिवार्य रहता है, जिसको बाल संगम के नाम से जाना जाता है इस संगठन में प्रत्येक घर से एक व्यक्ति को जुड़ना अनिवार्य रहता है। इसलिए पायको का मंझला भैया (दादा) का मृत्यु होने के बाद पायके मजबुरन संगठन जुड़ना पड़ा था। लेकिन कुछ साल बाद बाल संगम को छोड़कर घर में रहती थी। फिर अचानक पुलिस बल और DRG के जवानों ने गस्त में जा कर उसी जंगलों के आसपास घेरा लगा कर पहरा देते रहे और कुमारी पायके वेको को पुलिस प्रशासन रात में 1 बजे घर में सोयी, आईडी कार्ड जानकारी, आधार कार्ड और राशनकार्ड में नाम दर्ज रहने के बाद भी एक नाबालिक लड़की को नक्सली बनाकर हाथ पैर बाल को पकड़कर, जमीन में खिंचा-तानी करके, पत्थरों में घिसराते हुए लेके गये। निर्दोष पायके चिलाती रही उसको कोई नहीं सुना।”
यह घटना दिनांक 30 जून 2021 को रात में जंगल में ले जाकर तथाकथित बलात्कार करके, दूसरे दिन नक्सलियों का ड्रेस पहनाकर, उसके साथ समान छोड़ के शातिर पुलिस प्रशासन, फर्जी नक्सली मुठभेड़ के नाम से एक नाबालिक लड़की पर अन्याय करती है। अन्याय के ऊपर अन्याय झेल रहे हैं, ना सरकार को नजर देना है ,ना किसी जनप्रतिनिधि को! अन्य लोग जो इनकी नींद उड़ाके सब ऐसी में बैठकर आराम से सो हैं। उनके माता-पिता का ही एक मात्र सहारा थी, अब वो भी हमारे साथ नहीं रही पायके वेको । वैसे तो पुलिस के डर से हमारा समुदाय को फर्जी तरीके से परिवार उजड़ रहा है। इसी तरह पायके का बड़े भैया, राजू वेको बाजार से घर जा रहा था उसको भी नक्सली बता कर शहर में पकड़ कर जेल में बंद कर दिये, कयी सालों से वे भी बंद सलाखों के पीछे जूझ रहा है। पायके के परिवार आर्थिक स्थिति कमजोर है। उनको किन–किन चीजों का सामना करेगा और उनके माता /पिता का पालन पोषण के लिए सरकार मुवावजा देना चाहिए। ऐसी ना जाने कितने किस्से होंगे जो अभी तक दर्ज नही हुये हैं। ग्रामीन का कहना है की, “पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट अभी तक घरवालो को नही दी गई है। यह तो बस एक हकीकत है, ऐसा हर गाँव में न जाने कितनों बार हुआ होगा।”
विकास के नाम पर बर्बादी
ग्रामीणों का बहुत सरल प्रश्न है की, “जहाँ आदिवासी क्षेत्र मै अस्पताल नही वहाँ, स्कूल नहीं, विकास नहीं वहाँ चर्च, गुरुद्वारे और बडे़ बडे़ मंदिर बन गये, जब बाहर के लोग यहा आकार बडे़ बडे़ मंदिरो, चर्च और गुरुद्वारे बना सकते है तो बिना फोरलेन सड़क के विकास क्यों नही हो सकता? बिना माईनिंग से विकास क्यो नही हो सकता? और विकास की बात होती है तो फोरलेन की सडके बनती दिखती है। क्या फोर लेन की सडके होने के बाद ही स्कूल, यूनिवर्सिटी, हॉस्पिटल बनेगी? क्या वन लेन सडधक से विकास नही हो सकता? या फिर यह सड़के उन लोगो को आकर्षित करने के लिये बन रहे हैं – टुरिज्म के नाम पे जो बस्तर के आदिवासी को देखने आयेंगे मरे है या जीवित है? या फिर नैसर्गिक संपत्ति जो आदिवासियों की है, उनको उनकी ही जंगल-जमीन-पहाड़ से हटाकर निर्यात करने के हेतू इस फोरलेन सड़क को बनाया जा रहा है?“, भारत को स्वतंत्र हो कर 75 साल से ज्यादा हो रहा है, पर अभी भी आदिवासी क्षेत्रों में थोड़ भी विकास नही हुआ। न शिक्षा है, न अर्थव्यवस्था। है तो बस विस्थापन, गरीबी, अशिक्षा, नरसंहार, नकस्लवाद और शोषण। सिलगेर का अंदोलन सिर्फ सिलगेर के लोगो के लिये नहीं, वह बस्तर की बची हुई संस्कृती, प्रकृती और लोगो की और से एक आवाज है जो दब रही है।
सिलगेर मे जो नरसंहार हुआ था और जो भी उसकी भी अभी तक कोई मेडिकल रिपोर्ट उनके घर वालो को नही सोपी गई और जिसपे जाँच भी नही बैठाई गई। ग्रामसभा के जो भी नियम में अभी तक बदलाव हुआ है उसको लेकर कोई भी अभी तक न्यायालय मे नही पहुँचा है, क्योंकि अगर देखा जाये तो खुद के समाज के वकील और अन्य कानुनी लोग अभी भी नही है जो न्यायालय में मुद्दा उठाये, आदिवासियों के जनप्रतिनिधि तो वैसे भी जिंदालाश भर रह गये हैं, किसी काम के नहीं।
अंत में, आजादी, संविधान, लोकतंत्र, आदिवासियों के लिये है भी इस देश में ? क्या हम भी आँख के बदले आँख करें या जिंदगी भर हमारे पूरखे, हम, हमारी आने वाली पीढ़ी बस ऐसे ही राष्ट्रपति को ज्ञापन देते रहेगी और होगा कुछ नहीं उलटे पीटे जाओगे ? क्या यही सब देखने को आजाद हुयें, इसलिए संविधान बना, क्या यही लोकतंत्र हैं ? जहाँ इस देश के आदिवासियों के लिये (आरक्षण से फायदा का ज्ञान बस नहीं चाहिए) खुद के देश में, जो इस देश के प्रथ निवासी हैं, उनके लिये कोई जगह नहीं ? यह बातें भड़काऊ लग सकती, या उन तथाकथित राष्ट्र भक्तों की नजर में देशद्रोही भी बन जाये, पर सहने की एक सीमा होती है। इस देश में, गणतांत्रिक लोकतंत्र के असल मायने क्या हैं आदिवासियों के लिये?
हूल जोहार!