ठा. डेलन शाह काकोडिया – बुंदेला विद्रोह और 1857 की क्रांति के महानायक गोंड़ राजा


नरसिंहपुर के चांवरपाठा परगने की रामगढ़ रियासत जिसकी राजधानी ढिलवार मदनपुर थी। इन्ही राजा डेलन शाह के नेतृत्व में जिला नरसिंहपुर का स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया। सन् 1842-43 का बुंदेला विद्रोह और 1857 के प्रथम भारतीय स्वातंत्र्य का नेतृत्व अमर शहीद राजा डेलन शाह द्वारा किया गया था।

नर्मदा के उत्तर में जबलपुर-भोपाल राष्ट्रीय राजमार्ग पर तेंदूखेड़ा के आगे मदनपुर गाँव है। मदनपुर प्राचीन चांवरपाठा परगना में आता था। चांवरपाठा गोंडकालीन देवरी के पंचमहालों में एक था। उस समय चांवरपाठा परगना अनेक ताल्लुकाओं में बंटे थे। उनमें एक ताल्लुका मदनपुर भी था। ब्रिटिशकाल में मदनपुर ताल्लुका के राजा ठा. डेलन शाह मदनपुर के ताल्लुकेदार थे। कंपनी सरकार की ओर से राजा पद की मान्यता नहीं मिली थी किन्तु स्थानीय जनता उन्हें राजा मानती थी।

पूर्व में यह रामगढ़ रियासत कहलाती थी जो राजा डेलन शाह के पूर्वज राजा विश्राम शाह को महाराजा गढा मंडला से प्राप्त हुई थी जिसमें 200 गांव सम्मिलित थे। पहले इसका मुख्यालय तेंदूखेड़ा तहसील से 5 किमी दूरी पर वर्तमान रमपुरा गांव के पास जंगल में था। यहां पर आज भी किले, बावलियां, समाधियां और मूर्तियों  के भग्नावशेष हैं।

इन्ही राजा विश्राम शाह और रानी हीराकुंवर शाह की प्रथम संतान के रूप में 13 अगस्त, 1802 को राजा डेलन शाह का जन्म हुआ। जिनका गोत्र काकोडिया था। मराठों के आक्रमणों के कारण रामगढ ध्वस्त हो गया। इसलिये राजा विश्राम शाह को हटना पड़ा इसलिये उन्होंने अपने पुत्र डेलन शाह के नाम पर डेलनबाड़ा नामक बस्ती बसायी और पहाड़ी पर किला बनाया जो डेलवार, दिलवार और अपभ्रंश से ढिलवार हो गया। राजा डेलन शाह का विवाह 22 वर्ष की आयु में हर्रई जागीर की राजकुमारी मदनकुंवर के साथ हुई जिनके नाम पर वर्तमान मदनपुर ग्राम है। इस बात का उल्लेख सावन महीने में गाये जाने वाले कजलियां उत्सव पर शैला नृत्य और गायन में किया गया है।

राजा डेलन शाह का बचपन तीरंदाजी, घुड़सवारी, तलवार बाजी करते बीता। वे बचपन से ही बड़े बहादुर थे। उन्होंने शस्त्र और शास्त्र के साथ जड़ी बूटियों और गोंडी विद्या का ज्ञान सीखा। एक बार जंगल में उनके साथी मित्र सो रहे थे तब डेलन शाह 9 वर्ष के थे उन्होने देखा कि एक जहरीला सर्प उनके मित्र को डसने वाला है उन्होंने तुरंत ही अपने हाथ से पकड़ उसे दूर छिड़क दिया। एक बार खेल में ही आपने डाकुओं की बड़ी टोली को पकड़ कर कड़ी सजा दी थी। उनका अपनी प्रजा से बहुत लगाव था। वे अपने प्रजा की रक्षा पुत्रों की तरह करते थे। प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट न हो इसका वे बड़ा ध्यान रखते थे। उनकी पत्नि रानी मदनकुंवर अत्यंत रूपवती और गुणवान थी वह राजकार्य में राजा को पूरा सहयोग देती थी। राजा डेलन शाह को एक पुत्र भी हुआ जिसका नाम कुंवर रघुराज शाह था वह भी अंग्रेजों से लड़ते हुये 17 जनवरी 1858 को बलिदान हो गये।
                   
अँग्रेजी हुकूमत से संघर्ष:-

जब अंग्रेज़ आए तब उन्होने भोंसलों से श्रीनगर को छुड़ाकर, उसके स्थान पर गड़रियाखेड़ा(नरसिंहपुर)को मुख्यालय बनाया था। अंग्रेजों के पास नरसिंहपुर का आधा भाग आ चुका था। सिंधिया के कब्जे वाला क्षेत्र बाकी था। उस समय तेंदुखेड़ा और चांवरपाठा परगनों की जनता सिंधिया शासन से परेशान थी। राजा डेलन शाह के नेतृत्व में हजारों किसान कर्नल स्लीमन से मिलकर स्थिति से अवगत कराया था। सिंधिया के अराजक शासन की शिकायत कर्नल स्लीमन ने सरकार से की थी।  सन् 1825 में सिंधिया ने मजबूर होकर दोनों परगने कंपनी सरकार को सौंप दिया था।

कंपनी सरकार ने नरसिंहपुर और चांवरपाठा तहसीलों को मिलाकर नरसिंहपुर को नया जिला बना दिया था। जिले में राजा डेलन शाह का बहुत नाम था जिसे अधिकारी और मालगुज़ार पचा नहीं पा रहे थे। राजा को षडयंत्रपूर्वक महत्वहीन किया जा रहा था। षडयंत्रकारी कामयाब हो गए थे। मदनपुर का दीवान निजामशाह अपने सगे भाई को छोड़कर सरकार समर्थक हो गया था।

अँग्रेजी अधिकारी राजा की उपेक्षा कर अन्य मालगुजारों को महत्व दे रहे थे। परिणामस्वरूप जिले के दो आनरेरी मजिस्ट्रेट पदों पर राजा डेलनशाह और राजा हृदयशाह को नजर अंदाज करते हुये मानेगांव और उड्नी पिपरिया के मालगुजारों को बिठा दिया गया था। वे अपनी कचहरी लगाकर जमीन ज्यादाद के मामले निपटाने लगे थे। यह राजा डेलनशाह के लिए असहनीय था। लगातार हो रही अपनी उपेक्षा से वे बहुत दुखी थे। संभवतः इन्हीं सब घटनाओं से राजा डेलन शाह सरकार विरोधी हो गए थे।

अँग्रेजों के अत्याचार जनता पर बढते ही जा रहे थे। अंग्रेजों के अत्याचारों से सभी राजा, सामंत, जागीरदार और प्रजा बड़े त्रस्त थे, उन्हें निरंतर यातनायें दी जा रही थीं। फलस्वरूप पूरे भारत मेंअंग्रेजों के प्रति विद्रोह भावना जन्म ले रही थी। यह स्थिति स्वाभिमानी और देशभक्त राजा डेलन शाह को पसंद नहीं आ रही थी। उनके मन में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति गहरा आक्रोश उत्पन्न हो रहा था। अत: उन्होने सन् 1818 में चौरागढ पर हमला कर दिया और अंग्रेजों के यूनियन जैक झंडे को उतारकर अपना सतरंगिया ध्वज फहरा दिया परंतु वे किले को जीत नहीं सके परंतु वे अंग्रेजों की कुछ संपत्ति ले भागे जो इतनी थी कि उसे तामिया क्षेत्र में 16 एकड का तालाब बनाकर सात कुंओँ में भरना पड़ा। उन्होने चौरागढ के समीप महाराजा संग्राम शाह द्वारा बने हुये तालाब का जीर्णोद्धार कराया जिसे अंग्रेजों ने पारसमणि के चक्कर में ध्वस्त कर दिया था। उन्होंने चौरागढ के आसपास के क्षेत्रों में घूम घूम कर लोगों को जागरुक किया और स्वतंत्रता की अलख जगायी। इसी दौरान राजा डेलन शाह की मुलाकात चीचली क्षेत्र के वीर नरवर शाह से हुई वे कुशल योद्धा थे अत: राजा डेलन शाह उन्हें अपने साथ मदनपुर ले आये। वे राजकाज में नरवर शाह को महत्व देते थे । उनके बीच में गहरी मित्रता हो गई थी। नरवर शाह ने कंधे से कंधा मिलाकर  राजा डेलन शाह के नेतृत्व में ब्रिटिश हुकूमत को भारत से खदेड़ने में सहयोग किया।

सरकार ने सन 1836 में नरसिंहपुर से जिला मुख्यालय हटाकर होशंगाबाद कर दिया था। जबलपुर का कमिश्नर चार्ल्स फ्रेज़र कठोरहृदयी था। नर्बदा-सागर टेरेटरीज में ब्रिटिश अधिकारी अंधेरगर्दी मचाए हुये थे। नित नए बनते क़ानूनों ने ताल्लुकेदारों और जागीरदारों की नींद उड़ा दी थी। बहुत से भूमि-स्वामि अपनी जमीदारी से बेदखल हुए थे। बर्खास्त हुए भूमि-स्वामियों, जागीरदारों की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई थी।

बुढ़वा मंगल मेले में गोंडवाना और बुंदेलखंड के राजाओं की सफल बैठक हुई थी। इस बैठक के बाद सरकार को किसी बड़े विद्रोह की आशंका थी। सरकार सुमा गाँव की बैठक में शामिल लोगों की निगरानी करवा चाही थी।  जांच के लिए नर्मदा-सागर संभाग के कमिश्नर लेफ्टिनेंट चार्ल्स फ्रेज़र मदनपुर गए थे। “मदनपुर के किसी व्यक्ति ने उसे बताया कि, यहाँ के ठाकुर विद्रोही हैं। इनके ऊपर राजा हृदयशाह का प्रभाव है। परन्तु फ्रेज़र को पता था यहाँ के ठाकुर मराठा राज्य में भी विद्रोही थे।”

बुंदेला विद्रोह – सन् 1842-43

सन 1842 के विद्रोह में सम्पूर्ण नर्मदा घाटी में क्रांति की ज्वाला भड़क गई थी। सांकल घाट,बिलथरी घाट और तेंदुखेड़ा क्षेत्रों में राजा हृदयशाह के नेतृत्व में क्रांतिकारी कंपनी सरकार को नाकों चने चबवा रहे थे।

इस विद्रोह को सागर जिले में नरहट के मधुकर शाह , गणेश जू तथा चंद्रपुर के जवाहर सिंह द्वारा प्रारंभ किया गया था। इन पर सागर के दीवानी न्यायालय ने डिक्री तामील की और एक असंभव राशि के भुगतान का आदेश दिया। इन लोगों ने इस आदेश  की अवग्या की तथा ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया उन्होंने अँग्रेजों की चौकियों में तोड़ फोड़ कर दी और ब्रिटिश सिपाहियों को पीटा भी शीघ्र ही इस विद्रोह ने उग्र रूप ले लिया । ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ सुलग रही आग के कारण इसमें कई राजा, सामंत, किसान, मालगुजार और प्रजा शामिल हो गये जिससे विद्रोह का रूप भयानक हो गया।

नरसिंहपुर जिले में विशेषकर चांवरपाठा परगने में यह विद्रोह पूरी तरह से सफल रहा यहां इस विद्रोह का नेतृत्व  मदनपुर ढिलवार के गोंड राजा डेलन शाह ने किया। आसपास के कई राजा, मालगुजार, भूमि स्वामी  इत्यादि शीघ्र ही राजा डेलन शाह के साथ आ मिले। बम्हनी के दीवान पृथ्वी सिंह को छोड़ प्रत्येक भू स्वामियों ने खुले या गुप्त रूप से राजा डेलन शाह का साथ दिया।
चांवरपाठा परगना के सभी मालगुज़ार, मदनपुर के गोंड सरदारों ने राजा डेलनसिंह के नेतृत्व में चांवरपाठा और तेंदुखेड़ा पर अधिकार किया। विद्रोहियों ने आगे बढ़कर ब्राम्हणघाट पर नायब तहसीलदार पर गोली चलाई। उन्होंने स्थानिक लोगों से धन और रसद वसूल की और त्रिंबकराव को चांवरपाठा और बरमान का आमीन घोषित किया। सुआतला में रनजोरसिंह बुंदेला उन्हें आ मिला जहां से वे झतराघाट से महाराजपुर गए और उस पर अधिकार कर लिया। शीघ्र ही राजा डेलन शाह की सेना ने तेंदूखेड़ा की पुलिस चौकी को ध्वस्त कर दिया। वहां से वे आगे बढ़े और मारकाट करते हुये सुआतला और महाराजपुर की पुलिस चौकी को कब्जा करते हुये उसे तहस नहस कर डाला इसके बाद विद्रोही सेना ने देवरी जिला सागर के किले पर आक्रमण किया राजा डेलन शाह को यहां भी सफलता मिली उन्होने किले को जीतकर अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। वहां से वे चांवरपाठा की ओर अग्रसर हुये और शीघ्र ही किले पर अपना अधिकार कर अपना सतरंगिया ध्वज लहरा दिया। इसके बाद किले में ही कुल के समस्त देवी देवताओं की पूजन की। इसके बाद बरमान पहुंचकर नायब तहसीलदार पर गोली चलायी। राव त्र्यंबक सिंह कों चांवरपाठा तथा बरमान का आमिल नियुक्त किया। अपनी स्थिति को सुरक्षित बनाने तथा अधिकार में लिये गये क्षेत्रों में तथा प्रमुख नर्मदा घाटों पर अपने विश्वस्त प्रहरी नियुक्त किये तथा उनसे ब्रिटिश शासन की उपेक्षा कर अपने प्रति वफादार रहने का आदेश दिया। चांवरपाठा के बाद एक भी गोली चलाये बिना ही उन्होंने तेंदूखेड़ा पर अपना अधिकार कर लिया। नरसिंहपुर का तहसीलदार उन्हें देखते ही भाग खड़ा हुआ। इससे राजा डेलन शाह के अत्यंत शक्तिशाली और शसक्त विद्रोही होने का प्रमाण मिलता है। हीरापुर के राजा हिरदे शाह भी इस विद्रोह के प्रमुख नेता रहे। जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया।

लगभग 2 साल बाद सन 1842 का विद्रोह दबा दिया गया था किन्तु क्रांतिकारी अन्दर ही अन्दर सुलग रहे थे। सन 1842 बुंदेलखंड और गोंडवाना के भू-स्वामी सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिये थे। इसे इतिहास में बुंदेला विद्रोह के नाम से जाना गया है। राजा डेलनशाह और राजा नरवरसिंह इस विद्रोह की अगुवाई किए थे। सरकार को झुकना पड़ा था। नरसिंहपुर को पुनः जिला बनाना पड़ा था।

1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व

सन् 1857 का महान विद्रोह बदलती हुई परिस्थितियों का परिणाम था जिसने भारतीय जनमानस की शान्त लहरों को सभी प्रकार से उद्वेलित कर दिया। नरसिंहपुर भी इससे अछूता नहीं रहा।

अगस्त 1857 को राजा डेलन शाह के नेतृत्व में भोपाल तथा सागर के विद्रोहियों ने तेंदूखेड़ा नगर तथा पुलिस थाने को लूट लिया। शांति स्थापित करने के उद्देश्य से 28वीं मद्रास देशी पैदल सेना दो कंपनियों को जबलपुर से  नरसिंहपुर बुला लिया गया। अक्टूबर के मध्य में जिले में बड़ा खतरा पैदा हो गया। नर्मदा के उत्तरी परगने पर राजा डेलन शाह, नरवर शाह, गढी अम्बापानी के नवाब आदिल मोहम्मद खान, सहजपुर के मालगुजार बलभद्र सिंह, 500 तोड़दार बंदूकधारियों,  घुड़सवारों तथा चुंगीनाके के कुछ विद्रोही चपरासियों ने तेंदूखेड़ा और बेलखेडी में लूटमार की और उन्हें जला दिया। डिप्टी कमिश्नर ने नरवर सिंह को पकड़ने के लिये 500 रुपये के पुरूस्कार की घोषणा की।

12 दिसम्बर, 1857 को कैप्टन टर्नन ने मेजर आर्सकाइन को पत्र लिखकर सूचित किया कि जनता विद्रोहियों की मदद कर रही है इसलिये इनके विरूद्ध कोई भी सूचना पाना संभव नहीं है। ब्रिटिश सरकार ने राजा डेलन शाह को पकड़ने के लिये 1000 रुपये के पुरुस्कार की घोषणा की परंतु जनता प्रलोभन मॆं नहीं आयी इसलिये इनाम की राशि दो गुनी कर 2000 रुपये कर दी गई फिर भी अँग्रेजों को कोई फायदा नहीं हुआ।

18 नवम्बर 1857 को कैप्टन टर्नन ने राजा डेलन शाह के ढिलवार स्थित किले में आग लगा दी। परंतु डेलन शाह और  नरवर शाह को पकड़ा नहीं जा सका वे जंगलों में छिप जाते थे। नरवर शाह का एक भतीजा पकड़ लिया गया और उसे फांसी पर लटका दिया गया।

9 जनवरी, 1858 को राहतगढ और भोपाल से लगभग 4000 विद्रोहियों ने जिनमें भोपाल के नवाब आदिल मोहम्मद खान, सागर के बहादुर सिंह, 250 घुड़सवार पठानों ने राजा डेलन शाह और नरवर शाह के नेतृत्व में तेंदखेड़ा पर पुन: जोरदार आक्रमण किया और थोड़ी ही देर में तेंदूखेड़ा पर कब्जा कर लिया उन्होंने वहां लूटमार की और आग लगा दी। कैप्टन टर्नन की फौजों ने 28 वीं मद्रासी सेना और 2 तोपों, हैदराबाद रिसाले की दो टुकड़ियों, घुड़सवार पुलिस और कुछ साधारण पुुलिस की फौज लेकर आगे बढा और विद्रोहियों को राहतगढ की ओर खदेड़ दिया।

17 जनवरी 1858 को लौटकर उसने मदनपुर पर आक्रमण किया और चीकली ग्राम में राजा डेलन शाह के पुत्र कुंवर रघुराज शाह तथा 5 वर्ष के प्रपौत्र चित्र भानु शाह को यातनायेेेें देकर निर्ममता पूर्वक फांसी पर लटका दिया गया। राजा डेलन शाह की पत्नि रानी मदनकुंवर और पुत्रवधु रतनकुंवर तथा रनिवास की अन्य स्त्रियों ने अंग्रेजों द्वारा पकड़े जाने के भय से खुद की शहीदी दी।

इन परिस्थितियों ने राजा डेलन शाह को अंदर तक झकझोर दिया। परिवार का साथ बिछड़ने और अपने कुछ गद्दार साथियों की वजह से राजा डेलन शाह को चुनौती देना आसान हो गया और अँतत: राजा डेलन शाह को उनके साथियों सहित पकड़ लिया गया और 16 मई, 1858 के दिन उनके ढिलवार किले के पीछे बरगद के पेड़ पर फाँसी दे दी गई वे मातृभूमि के लिये हँसते हुये शहीद हो गये।

राजा डेलन शाह भारतीय इतिहास के एकमात्र राजा हैं जिनके सीने से गोली उचट जाती थी । बंदूक , तलवार, भाले किसी भी अस्र से वे नहीं मरते थे। कैप्टन टर्नन के जहर पिलाने पर भी वे नहीं मरे और तीन दिन तीन रात फांसी पर जीवित लटके रहे। उनके पास आराध्य बड़ादेव की सिद्ध की हुई जडी थी तीन दिन यातना झेलने के बाद जब कहीं से आशा की किरण समझ में नहीं आयी तो उन्होने स्वयं चाकू मंगाकर अपनी जड़ी निकाल दी। कहते हैं वहां उपस्थित अँग्रेजों ने भी राजा डेलन शाह को सलामी दी। इस प्रकार भारत माता का लाल माटी पर बलिदान हो गया।

राजा डेलन शाह भारतीय इतिहास के एकमात्र राजा हैं जिनके सीने से गोली उचट जाती थी। बंदूक, तलवार, भाले किसी भी अस्र से वे नहीं मरते थे। कैप्टन टर्नन के जहर पिलाने पर भी वे नहीं मरे और तीन दिन तीन रात फांसी पर जीवित लटके रहे। उनके पास आराध्य बड़ादेव की सिद्ध की हुई जडी थी तीन दिन यातना झेलने के बाद जब कहीं से आशा की किरण समझ में नहीं आयी तो उन्होने स्वयं चाकू मंगाकर अपनी जड़ी निकाल दी। कहते हैं वहां उपस्थित अँग्रेजों ने भी राजा डेलन शाह को सलामी दी। इस प्रकार भारत माता का लाल माटी पर बलिदान हो गया।

आज उसी स्थान पर कलेक्टर महोदय श्री एम पी सिंह द्वारा 1961 में शहीद स्मारक बनाया गया है जहां लोग श्रद्धा से सर झुकाते हैं। आजादी की लड़ाई में सर्वस्व न्यौछावर करने वाले इन अमर शहीदों के वंशजों की किसी ने सुध नहीं ली एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है? स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के अवशेषों का संरक्षण पांचवी पीढी के वंशज कुंवर भीष्म शाह द्वारा किया जा रहा है।

जोहार
जय गोंडवाना🦁

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *